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Thursday 3 January 2013

प्रेसपालिका : 01 जनवरी, 2013 में प्रकाशित शायरी

जो तू चाहे तो मंजिल खुद मुसाफिर के कदम चूमे।
जहॉं में रहनुमाओं का भी यारब रहनुमा तू है॥

हम अगर मिट जायेंगे तो यह जहॉं मिट जायेगा।
यह जमीं मिट जायेगी, यह आसमां मिट जायेगा॥

आसान किस कदर है मुहब्बत का यह सबक।
बस एक बार मैंने पढा (और) याद हो गया॥

खून दामन पर न था गो दर्द था बेइन्तहा।
क्योंकि दिल का जख्म गहरा था, मगर ताजा न था॥

जीत में तो जीत थी ही, हार में भी जीत थी।
था मुनाफा ही मुनाफा, प्यार में घाटा न था॥

यक ब यक रुख पर सभी के इक उदासी छा गई।
उठके तेरी बज्म से जब तेरा दीवाना गया॥

छोड़िये अब यह तकल्लुफ और यह शर्मो हया।
आपको इस घर में आये इक जमाना हो गया॥

स्त्रोत : दीवाने-ए-मयंक, के. के. सिंह ‘मयंक’ अकबराबादी

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