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Sunday 2 June 2013

प्रेसपालिका : 01 जून, 2013 में प्रकाशित शायरी

जब भी मुड़कर देखता हूँ, कुछ नजर आता नहीं।
कौन देता है सदायें, शाम ढल जाने के बाद॥

दिल तोड़ने पे मेरा जमाना लगा रहा।
दिल टूटता भी कैसे जो फौलाद हो गया॥

किसकी अदालत में वह जाये, किससे मांगे इंसाफ।
कोई भी पुरसा हाल नहीं है, आज यहॉं फरियादी का॥

इस तरह तड़पाया मेरी याद ने उसको कि बस।
भूलने वाले का मुझको फिर पयाम आ ही गया॥

देख लो दामन हमारा आज भी बेदाग है।
मयकदे में यूं तो हमने जाम उछाले हैं बहुत॥

मुखातिब उनको करने को, बदलते रह गये पहलू।
मुहब्बत का सिला पाया न, इस करवट न उस करवट॥

समझने वाले मेरे दिल का मुद्दआ समझें।
है लफ्ज लफ्ज से जाहिर, मेरी जंबा का मिजाज॥

बज्म में वह माहरू (चन्द्रमुखी) जब बेनकाब आने को है।
किसलिये दीपक जलायें, शाम ढल जाने के बाद॥

लोग कहते हैं कि आप आये कयामत आ गयी।
अब न आयेगी कयामत आप से मिलने के बाद॥

स्त्रोत : दीवाने-ए-मयंक, के. के. सिंह ‘मयंक’ अकबराबादी

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