मैंने कहा कि पड़ा हूँ मैं मुद्दत से दर पे आपके।
बिगड़ी मेरी बनाइये, कहने लगे अभी नहीं॥
शिकायत मत करो उनसे, कोई वादा खिलाफी की।
अरे ये भूलने वाले हैं, अकसर भूल जाते हैं॥
कैसे करें इजहारे मुहब्बत, दोनों हैं दुश्वारी में।
हम अपनी हुशियारी में हैं, वह अपनी हुशियारी में॥
कशिश वह चाहिये मुझको किसी के हुस्ने रंगी की।
कि बज्में नाज में जाने को मैं मजबूर हो जाऊं॥
गुनाहों के उभर आये हैं, इतने दाग चेहरे पर।
अगर अब आइना देखें तो हम हैरान हो जायें॥
पस्तियों को बस जरा अंगड़ाईयॉं लेने तो दो।
आके कदमों पर गिरेंगी इनके फिर ऊंचाइयॉं॥
वह हमारा, हम हैं उसके, दोनों ही हैं उसके घर।
चाहे मस्जिद में रहें हम, या शिवालों में रहें॥
ढाने लगेगा जौरो सितम सुनके और भी।
जौरो सितम का उसके अगर हम गिला करें॥
जी रहे हैं जिन्दगी खाना बदोशों की तरह।
इन घरों की भीड़ में भी अपना घर कोई नहीं॥
स्त्रोत : दीवाने-ए-मयंक, के. के. सिंह ‘मयंक’ अकबराबादी