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Monday 21 January 2013

प्रेसपालिका : 16 जनवरी, 2013 में प्रकाशित शायरी


जिसके लिये ये जान और ईमान दे दिये|
उसने ही मेरी कद्र न जानी तमाम उम्र॥

जो हंस-हंस के सहते हैं जोरो-सितम को|
वो अश्कों--की करते-नहीं हैं--नुमाइश॥

हो-गई बाजार--में रुसवाईयों--की--इन्तिहा|
आप अब तो छोड़ दीजे उनके घर जाने का शौक॥

आने को इक मुकाम पे आते हैं जलजले|
होता है मगर इनका असर दूर-दूर तक॥

नहीं जिनको मयस्सर सर छुपाने के लिये छप्पर|
खड़ी करते रहेंगे दूसरों की कोठियां कब तक??

नफरतों की आंधियों को हम कहें तो क्या कहें|
ऐ--मुहब्बत तेरे चलते ही उजड़ जाते हैं लोग॥

गुजरी--हुई रुतों की सुनाकर कहानियां|
कुछ और दिल का दर्द बढाने लगे हैं लोग॥

मस्त--आँखों से वो अपनी जाम--छलकाते रहे|
किस कदर लेता कोई फिर होश में आने का नाम॥

शिकायत मैं करूं तो क्या करूं इस खुश्क मौसम से|
बरसने--वाले--बादल--भी मेरा घर भूल जाते हैं॥

अच्छे दिनों में सब थे साथी, सबसे था याराना भी|
लेकिन मेरे काम न आया, कोई--भी-दुश्‍वारी में॥

उम्मीदे--करम-जिससे की, हमने मुहब्बत में|
उसने ही सितम हम पर दिल खोल के ढाये हैं॥

तू मिटाने--को मिटा दे, शौक से मेरा--वजूद|
छोड़कर जाऊंगा फिर भी अपनी मैं-परछाईयां॥

स्त्रोत : दीवाने-ए-मयंक, के. के. सिंह ‘मयंक’ अकबराबादी

Thursday 3 January 2013

प्रेसपालिका : 01 जनवरी, 2013 में प्रकाशित शायरी

जो तू चाहे तो मंजिल खुद मुसाफिर के कदम चूमे।
जहॉं में रहनुमाओं का भी यारब रहनुमा तू है॥

हम अगर मिट जायेंगे तो यह जहॉं मिट जायेगा।
यह जमीं मिट जायेगी, यह आसमां मिट जायेगा॥

आसान किस कदर है मुहब्बत का यह सबक।
बस एक बार मैंने पढा (और) याद हो गया॥

खून दामन पर न था गो दर्द था बेइन्तहा।
क्योंकि दिल का जख्म गहरा था, मगर ताजा न था॥

जीत में तो जीत थी ही, हार में भी जीत थी।
था मुनाफा ही मुनाफा, प्यार में घाटा न था॥

यक ब यक रुख पर सभी के इक उदासी छा गई।
उठके तेरी बज्म से जब तेरा दीवाना गया॥

छोड़िये अब यह तकल्लुफ और यह शर्मो हया।
आपको इस घर में आये इक जमाना हो गया॥

स्त्रोत : दीवाने-ए-मयंक, के. के. सिंह ‘मयंक’ अकबराबादी