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Saturday 10 August 2013

प्रेसपालिका : 01 अगस्त, 2013 में प्रकाशित शायरी

गम हो कि खुशी दोनों कुछ दूर के साथी हैं।
फिर रस्ता ही रस्ता है, हंसना है न रोना है॥

घर से निकले तो हो, सोचा भी किधर जाओगे?
हर  तरफ  तेज  हवाएं  हैं,  बिखर  जाओगे॥

पहले भी जिया करते थे, मगर जब से मिली है जिन्दगी।
सीधी  नहीं  है, दूर  तक  उलझी  हुई  है,  जिन्दगी॥

जब  से  करीब  हो के चले जिन्दगी से हम।
खुद अपने आईने को लगे अजनबी से हम॥

कुछ तबियत ही मिली थी ऐसी, चैन  से  जीने  की  सूरत न हुई।
जिसको चाहा उसे अपना न सके, जो मिला उससे मुहब्बत न हुई॥

दु:ख में नीर बहा देते थे, सुख में हंसने लगते थे।
सीधे-सादे लोग थे, लेकिन कितने अच्छे लगते थे?

दीवारो-दर से उतर के परछाईयां बोलती हैं।
कोई नहीं बोलता, जब तन्हाईयां बोलती हैं॥

यूं  तो  हर  एक बीज की फितरत दरख्त है।
खिलते हैं जिसमें फूल वो आबो-हवा भी हो॥

अब वक्त बचा है कितना, जो और  लड़ें  दुनिया से।
दुनिया की नसीहत पर भी थोड़ा-सा अमल कर देखें॥
स्रोत : निदा फाजली, ‘‘सफर में धूप तो होगी’’

Sunday 21 July 2013

प्रेसपालिका : 16 जुलाई, 2013 में प्रकाशित शायरी

दिल में किसी के राह किये जा रहा हूँ मैं।
कितना हँसी गुनाह किये जा रहा हूँ मैं॥-शाकिर श्योपुरी

सोया था हारकर मैं गमे रोजगार से।
इतने में तेरी याद ने आकर जगा दिया॥-शाकिर श्योपुरी

नजर में बेरुखी, लब पे तबस्सुमें।
न जाने दिल में क्या ठाने हुए हैं॥-रईस अमरोहवी

उंगलियों को तराश दूँ फिर भी आदतन।
आदतन उसका नाम लिक्खेगी॥-परवीन शाकिर

सहारा क्यों लिख था नाखुदा का।
खुदा भी क्यों करे इमदाद मेरी॥-हाफिज जालन्धरी

कमजोर जान के भी तुझे ऐ गमे फिराक।
दिल ने लिया तेरा सहारा कभी कभी॥- प्रो. जगन्नाथ आजाद

कुछ इख्तियार किसी का नहीं तबियत पर।
ये जिस पे आती है, बेइख्तियार आती है॥-जलील मानिकपुरी

वादा करके और भी आफत में डाला आप ने।
जिन्दगी मुश्किल थी, अब मरना भी मुश्किल हो गया॥-जलील मानिकपुरी

जवाब सोच के वो दिल में मुस्कुराते हैं।
अभी जबां पे मेरी, सवाल भी तो न था॥-बेखुद देहलवी

Saturday 6 July 2013

प्रेसपालिका : 01 जुलाई, 2013 में प्रकाशित शायरी

नजर उठाके उसे देखना था जुर्म मगर।
हजार बार मेरे सामने से गुजरी थी॥ अमीर कजलबाश

अब ये तय करके चला हूँ कि भटकने के लिये।
जिस तरफ राह न जाती हो उधर जाऊंगा ॥ डॉ. जमशेद अनजान

ओ मेरे मन की आकुलता मेरा साथ छोड़ मत देना ।
अभी हृदय में घुट-घुटकर जीने का अरमान शेष है॥ शिव कुमार शुक्ल

शर्म है आंखों में और न है जुबां पर बंदिशें।
यूं तो करता है जमाने भर से वो परदा बहुत॥ राजू रंगीला

तुम मो तन्हा रास्ते में छोड़कर गुम हो गये।
मुद्दतों मुझको मेरी रुसवाईयों ने खत लिखे॥ ओंकार गुलशन

यूं तो जो पाया सफर में, सब सफर में रह गया।
रास्ते का आखिरी मंजर नजर में रह गया॥ मखूर सईदी

कैसे वो सबका मित्र बना, हम न बन सके।
सच पूछिए तो उसने दिखावा किया बहुत॥ निश्तर खानकाही

खुशी में झूमकर, हंसने से पहले, ये समझ लेना।
हंसी अक्सर कई जख्मों के टांके खोल देती है॥ अशोक साहिल

कर दिया मैंने जमाने को उसी के रू-ब-रू।
हाथ धोकर फिर मेरे पीछे जमाना पड़ गया॥ कृष्ण सुकुमार

Friday 21 June 2013

प्रेसपालिका : 16 जून, 2013 में प्रकाशित शायरी

कहता है वह कि मेरे लिये तुमने क्या किया।
उस पर मता-ए-जीस्त (जीवन की दौलत) लुटाने के बावजूद॥

तू ही मकसद, तू ही मंजिल, तू ही किश्ती, तू ही साहिल।
हकीकत में जहाने आरजू का मुद्दआ (ख्वाहिश) तू है ॥

नाशाद (दु:खी) था मैं और भी नाशाद हो गया ।
जब से गमों की कैद से आजाद हो गया॥

दिल दे के तुम्हें अपना हम भूल गये कब के।
अपनों पे जो करते हैं, अहसान नहीं होता॥

इम्तिहां, इम्तिहां इम्तिहां, उम्र भर आजमाया गया।
तब कहीं जाके टूटा भरम, आइना जब दिखाया गया॥

रो लेता हूँ जी भरकर जब अपनी तबाही पर।
फिर मुझको तबाही का एहसास नहीं होता॥

छोड़ दे पीछा मेरा लिल्लाह (खुदा के वास्ते) अब तो जिन्दगी।
तुझको सीने से लगाये इक जमाना हो गया॥

जिन्दगी की राह में चलिये न आँखें मूंदकर।
वरना अंधों की तरह ही ठोकरें खायेंगे आप॥

कहने को तो एक हुए हैं दोनों के दिल आज।
दूरी फिर क्यों बनी हुई है, तुम दोनों के बीच॥

स्त्रोत : दीवाने-ए-मयंक, के. के. सिंह ‘मयंक’ अकबराबादी

Sunday 2 June 2013

प्रेसपालिका : 01 जून, 2013 में प्रकाशित शायरी

जब भी मुड़कर देखता हूँ, कुछ नजर आता नहीं।
कौन देता है सदायें, शाम ढल जाने के बाद॥

दिल तोड़ने पे मेरा जमाना लगा रहा।
दिल टूटता भी कैसे जो फौलाद हो गया॥

किसकी अदालत में वह जाये, किससे मांगे इंसाफ।
कोई भी पुरसा हाल नहीं है, आज यहॉं फरियादी का॥

इस तरह तड़पाया मेरी याद ने उसको कि बस।
भूलने वाले का मुझको फिर पयाम आ ही गया॥

देख लो दामन हमारा आज भी बेदाग है।
मयकदे में यूं तो हमने जाम उछाले हैं बहुत॥

मुखातिब उनको करने को, बदलते रह गये पहलू।
मुहब्बत का सिला पाया न, इस करवट न उस करवट॥

समझने वाले मेरे दिल का मुद्दआ समझें।
है लफ्ज लफ्ज से जाहिर, मेरी जंबा का मिजाज॥

बज्म में वह माहरू (चन्द्रमुखी) जब बेनकाब आने को है।
किसलिये दीपक जलायें, शाम ढल जाने के बाद॥

लोग कहते हैं कि आप आये कयामत आ गयी।
अब न आयेगी कयामत आप से मिलने के बाद॥

स्त्रोत : दीवाने-ए-मयंक, के. के. सिंह ‘मयंक’ अकबराबादी

Friday 17 May 2013

प्रेसपालिका : 16 मई, 2013 में प्रकाशित शायरी

मैंने कहा कि पड़ा हूँ मैं मुद्दत से दर पे आपके।
बिगड़ी मेरी बनाइये, कहने लगे अभी नहीं॥

शिकायत मत करो उनसे, कोई वादा खिलाफी की।
अरे ये भूलने वाले हैं, अकसर भूल जाते हैं॥

कैसे करें इजहारे मुहब्बत, दोनों हैं दुश्‍वारी में।
हम अपनी हुशियारी में हैं, वह अपनी हुशियारी में॥

कशिश वह चाहिये मुझको किसी के हुस्ने रंगी की।
कि बज्में नाज में जाने को मैं मजबूर हो जाऊं॥

गुनाहों के उभर आये हैं, इतने दाग चेहरे पर।
अगर अब आइना देखें तो हम हैरान हो जायें॥

पस्तियों को बस जरा अंगड़ाईयॉं लेने तो दो।
आके कदमों पर गिरेंगी इनके फिर ऊंचाइयॉं॥

वह हमारा, हम हैं उसके, दोनों ही हैं उसके घर।
चाहे मस्जिद में रहें हम, या शिवालों में रहें॥

ढाने लगेगा जौरो सितम सुनके और भी।
जौरो सितम का उसके अगर हम गिला करें॥

जी रहे हैं जिन्दगी खाना बदोशों की तरह।
इन घरों की भीड़ में भी अपना घर कोई नहीं॥

स्त्रोत : दीवाने-ए-मयंक, के. के. सिंह ‘मयंक’ अकबराबादी

Friday 3 May 2013

प्रेसपालिका : 01 मई, 2013 में प्रकाशित शायरी

ढूंढने से भी नहीं मिलता हमें अपना वजूद।
हो गयी हैं, आज तन्हा और भी तन्हाईयॉं॥

उनकी  बज्मे  नाज  में  कुछ  मांगने  जाते नहीं।
अपना मकसद है कि बस उनके खयालों में रहें॥

इस  दिखावे  के  दौर  में  हमने, हर  कदम  पर  फरेब  खाये  हैं।
भूल जाऊं मैं किस तरह उसको, जहनो दिल पर जो मेरे छाये हैं॥

बदलते  मौसमों  के  बदले  तेवर,  खबर  तूफान  की  देते  नहीं हैं।
वो क्या बांटेंगे अपनी मुस्कुराहट, जो औरों को खुशी देते नहीं हैं॥

बात कुछ तो है जो उनकी मुझ पे है नजरे करम।
बेसबब  कोई  किसी  पर  मेहरबां  होता  नहीं॥

सभी को देख लिया मैंने वक्त पड़ने पर।
हर एक शख्स को मैं आजमाये बैठा हूँ॥

गर यकीं  मुझ पर  नहीं तो  आइनों  से  पूछ लो।
दिल हंसी मिलता है तो सूरत हंसी मिलती नहीं॥

झुकी-झुकी सी निगाहों से मिल गया मुझको।
न  दो  सवाल  का  मेरे  जवाब,  रहने  दो॥

मुझको डर है खुद अपनी ही नजर न उसको लग जाये।
आईने  में  देख  के  जब  भी  अपना  रूप  संवारे  वह॥

स्त्रोत : दीवाने-ए-मयंक, के. के. सिंह ‘मयंक’ अकबराबादी

Wednesday 24 April 2013

प्रेसपालिका : 16 अप्रेल, 2013 में प्रकाशित शायरी

उलझे हजार बार गमे जिन्दगी से हम।
दामन को अपने लाख बचाने के बावजूद॥

जाने वालों को भला मैं किसलिये इल्जाम दूं।
कौन वापस लौटपाया है, उधर जाने के बाद॥

क्या करें उलझन हमारी खत्म होती ही नहीं।
उसने सुलझाने को अपनी जुल्फ सुलझाई बहुत॥

है मौत के आने का तय वक्त मगर फिर भी।
किस वक्त कहां आये आभास नहीं होता॥

मुखातिब मुस्कराकर जब कोई होता है महफिल में।
कसे हैं कितने ताने उसने हम पर भूल जाते हैं॥

आलम वही है एक जमाने के बावजूद।
आते हैं अब भी याद भुलाने के बावजूद॥

यकीनन बेमजा हो जायेगी फिर जिन्दगी उसकी।
अगर इंसान के पूरे सभी अरमान हो जायें॥

स्त्रोत : दीवाने-ए-मयंक, के. के. सिंह ‘मयंक’ अकबराबादी

Sunday 7 April 2013

प्रेसपालिका : 01अप्रेल, 2013 में प्रकाशित शायरी

उंगलियों पर हम गिना दें, हों अगर दो चार दस।
कामयाबी पर हमारी जलने वाले हैं बहुत॥

बदलने को तो हर लम्हा ही मैंने करवटें बदली।
करारे जिन्दगी पाया न इस करवट न उस करवट॥

फूल खिलाता था जो कल तक, आज वो कांटे बोता है।
फर्क आखिर यह कैसे आया, मैं भी सोचूँ तू भी सोच॥

उगते सूरज की इबादत की जिन्होंने उम्रभर।
जश्‍न वह कैसे मनायें शाम ढल जाने के बाद॥

पहले मेरी जिन्दगी पर छाये थे रस्मो रिवाज।
भूल बैठा हर रिवायत, आप से मिलने के बाद॥

आरजू जन्नत की लेकर दर-बदर भटका किये।
स्वर्ग लेकिन मिल सका बस अपने घर जाने के बाद॥

बन के तुम्हारी याद महकती रही सदा।
जूही, चमेली, रात की रानी तमाम उम्र॥

स्त्रोत : दीवाने-ए-मयंक, के. के. सिंह ‘मयंक’ अकबराबादी

Friday 15 March 2013

प्रेसपालिका : 16 फरवरी, 2013 में प्रकाशित शायरी

सबको पता है बाढ आयेगी; घर भी यकीनन डूबेंगे|
फिर भी साहिल पर बैठे हैं, बस्ती नयी बसाये लोग॥

बस अभी आये अभी लेने लगे जाने का नाम।
तुमको जाना था तो क्यों तुमने लिया आने का नाम॥

वह फकत दो गज जमीं में कैद होकर रह गया।
जो ये कहता था कि ये सब कुछ हमारा है मियां॥

मैंने कहा कि तोड़िये शर्मो हया की बंदिशें।
मुझसे नजर मिलाइये, कहने लगे अभी नहीं॥

ये लाजिम तो नहीं है साहिबें ईमान हो जायें।
मगर इतना जरूर है कि हम इंसान हो जायें॥

दुनियादारी के हमें कुछ और भी तो काम हैं।
कब तलक उलझे हुए हम तेरे बालों में रहें॥

यह कह के हमने छोड़ दिया जिन्दगी का साथ।
कब तक हम अपने दर्द की यारो दवा करें॥

स्त्रोत : दीवाने-ए-मयंक, के. के. सिंह ‘मयंक’ अकबराबादी

Sunday 10 March 2013

प्रेसपालिका : 01 फरवरी, 2013 में प्रकाशित शायरी

मैं मांगने गया था वहां जिन्दगी मगर|
फरमान मेरी मौत का इरशाद हो गया॥

नफरतों की चोटियों पर बैठकर रोता रहा|
जिसने दिल की खाइयों को प्यार से पाटा न था॥

पहले मेरे कसीदे पढे, फिर नजर से गिराया गया|
जर्मे उल्फत की इतनी सजा, आसमां से गिराया गया॥

यारों ये कहावत भी इक जिन्दा हकीकत है|
किस्मत में कनीजों के रनिवास नहीं होता॥

खेलने के लिये जिसको दिल चाहिये, वह खिलौनों से कैसे बहल जायेगा|
फिर न आयेगा वापस कभी लौटकर, तीर जो भी कमां से निकल जायेगा॥

ऐ दोस्त जमीर अपना इक ऐसा नजूमी (ज्योतिषी) है|
आगाज से पहले ही अंजाम बता देगा॥

आइये आ जाइये अब तो करीब आ जाइये|
प्यास नजरों की बुझाये इक जमाना हो गया॥

स्त्रोत : दीवाने-ए-मयंक, के. के. सिंह ‘मयंक’ अकबराबादी

Monday 21 January 2013

प्रेसपालिका : 16 जनवरी, 2013 में प्रकाशित शायरी


जिसके लिये ये जान और ईमान दे दिये|
उसने ही मेरी कद्र न जानी तमाम उम्र॥

जो हंस-हंस के सहते हैं जोरो-सितम को|
वो अश्कों--की करते-नहीं हैं--नुमाइश॥

हो-गई बाजार--में रुसवाईयों--की--इन्तिहा|
आप अब तो छोड़ दीजे उनके घर जाने का शौक॥

आने को इक मुकाम पे आते हैं जलजले|
होता है मगर इनका असर दूर-दूर तक॥

नहीं जिनको मयस्सर सर छुपाने के लिये छप्पर|
खड़ी करते रहेंगे दूसरों की कोठियां कब तक??

नफरतों की आंधियों को हम कहें तो क्या कहें|
ऐ--मुहब्बत तेरे चलते ही उजड़ जाते हैं लोग॥

गुजरी--हुई रुतों की सुनाकर कहानियां|
कुछ और दिल का दर्द बढाने लगे हैं लोग॥

मस्त--आँखों से वो अपनी जाम--छलकाते रहे|
किस कदर लेता कोई फिर होश में आने का नाम॥

शिकायत मैं करूं तो क्या करूं इस खुश्क मौसम से|
बरसने--वाले--बादल--भी मेरा घर भूल जाते हैं॥

अच्छे दिनों में सब थे साथी, सबसे था याराना भी|
लेकिन मेरे काम न आया, कोई--भी-दुश्‍वारी में॥

उम्मीदे--करम-जिससे की, हमने मुहब्बत में|
उसने ही सितम हम पर दिल खोल के ढाये हैं॥

तू मिटाने--को मिटा दे, शौक से मेरा--वजूद|
छोड़कर जाऊंगा फिर भी अपनी मैं-परछाईयां॥

स्त्रोत : दीवाने-ए-मयंक, के. के. सिंह ‘मयंक’ अकबराबादी

Thursday 3 January 2013

प्रेसपालिका : 01 जनवरी, 2013 में प्रकाशित शायरी

जो तू चाहे तो मंजिल खुद मुसाफिर के कदम चूमे।
जहॉं में रहनुमाओं का भी यारब रहनुमा तू है॥

हम अगर मिट जायेंगे तो यह जहॉं मिट जायेगा।
यह जमीं मिट जायेगी, यह आसमां मिट जायेगा॥

आसान किस कदर है मुहब्बत का यह सबक।
बस एक बार मैंने पढा (और) याद हो गया॥

खून दामन पर न था गो दर्द था बेइन्तहा।
क्योंकि दिल का जख्म गहरा था, मगर ताजा न था॥

जीत में तो जीत थी ही, हार में भी जीत थी।
था मुनाफा ही मुनाफा, प्यार में घाटा न था॥

यक ब यक रुख पर सभी के इक उदासी छा गई।
उठके तेरी बज्म से जब तेरा दीवाना गया॥

छोड़िये अब यह तकल्लुफ और यह शर्मो हया।
आपको इस घर में आये इक जमाना हो गया॥

स्त्रोत : दीवाने-ए-मयंक, के. के. सिंह ‘मयंक’ अकबराबादी