गम हो कि खुशी दोनों कुछ दूर के साथी हैं।
फिर रस्ता ही रस्ता है, हंसना है न रोना है॥
घर से निकले तो हो, सोचा भी किधर जाओगे?
हर तरफ तेज हवाएं हैं, बिखर जाओगे॥
पहले भी जिया करते थे, मगर जब से मिली है जिन्दगी।
सीधी नहीं है, दूर तक उलझी हुई है, जिन्दगी॥
जब से करीब हो के चले जिन्दगी से हम।
खुद अपने आईने को लगे अजनबी से हम॥
कुछ तबियत ही मिली थी ऐसी, चैन से जीने की सूरत न हुई।
जिसको चाहा उसे अपना न सके, जो मिला उससे मुहब्बत न हुई॥
दु:ख में नीर बहा देते थे, सुख में हंसने लगते थे।
सीधे-सादे लोग थे, लेकिन कितने अच्छे लगते थे?
दीवारो-दर से उतर के परछाईयां बोलती हैं।
कोई नहीं बोलता, जब तन्हाईयां बोलती हैं॥
यूं तो हर एक बीज की फितरत दरख्त है।
खिलते हैं जिसमें फूल वो आबो-हवा भी हो॥
अब वक्त बचा है कितना, जो और लड़ें दुनिया से।
दुनिया की नसीहत पर भी थोड़ा-सा अमल कर देखें॥
स्रोत : निदा फाजली, ‘‘सफर में धूप तो होगी’’