कहता है वह कि मेरे लिये तुमने क्या किया।
उस पर मता-ए-जीस्त (जीवन की दौलत) लुटाने के बावजूद॥
तू ही मकसद, तू ही मंजिल, तू ही किश्ती, तू ही साहिल।
हकीकत में जहाने आरजू का मुद्दआ (ख्वाहिश) तू है ॥
नाशाद (दु:खी) था मैं और भी नाशाद हो गया ।
जब से गमों की कैद से आजाद हो गया॥
दिल दे के तुम्हें अपना हम भूल गये कब के।
अपनों पे जो करते हैं, अहसान नहीं होता॥
इम्तिहां, इम्तिहां इम्तिहां, उम्र भर आजमाया गया।
तब कहीं जाके टूटा भरम, आइना जब दिखाया गया॥
रो लेता हूँ जी भरकर जब अपनी तबाही पर।
फिर मुझको तबाही का एहसास नहीं होता॥
छोड़ दे पीछा मेरा लिल्लाह (खुदा के वास्ते) अब तो जिन्दगी।
तुझको सीने से लगाये इक जमाना हो गया॥
जिन्दगी की राह में चलिये न आँखें मूंदकर।
वरना अंधों की तरह ही ठोकरें खायेंगे आप॥
कहने को तो एक हुए हैं दोनों के दिल आज।
दूरी फिर क्यों बनी हुई है, तुम दोनों के बीच॥
स्त्रोत : दीवाने-ए-मयंक, के. के. सिंह ‘मयंक’ अकबराबादी
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