उलझे हजार बार गमे जिन्दगी से हम।
दामन को अपने लाख बचाने के बावजूद॥
जाने वालों को भला मैं किसलिये इल्जाम दूं।
कौन वापस लौटपाया है, उधर जाने के बाद॥
क्या करें उलझन हमारी खत्म होती ही नहीं।
उसने सुलझाने को अपनी जुल्फ सुलझाई बहुत॥
है मौत के आने का तय वक्त मगर फिर भी।
किस वक्त कहां आये आभास नहीं होता॥
मुखातिब मुस्कराकर जब कोई होता है महफिल में।
कसे हैं कितने ताने उसने हम पर भूल जाते हैं॥
आलम वही है एक जमाने के बावजूद।
आते हैं अब भी याद भुलाने के बावजूद॥
यकीनन बेमजा हो जायेगी फिर जिन्दगी उसकी।
अगर इंसान के पूरे सभी अरमान हो जायें॥
स्त्रोत : दीवाने-ए-मयंक, के. के. सिंह ‘मयंक’ अकबराबादी