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Wednesday 24 April 2013

प्रेसपालिका : 16 अप्रेल, 2013 में प्रकाशित शायरी

उलझे हजार बार गमे जिन्दगी से हम।
दामन को अपने लाख बचाने के बावजूद॥

जाने वालों को भला मैं किसलिये इल्जाम दूं।
कौन वापस लौटपाया है, उधर जाने के बाद॥

क्या करें उलझन हमारी खत्म होती ही नहीं।
उसने सुलझाने को अपनी जुल्फ सुलझाई बहुत॥

है मौत के आने का तय वक्त मगर फिर भी।
किस वक्त कहां आये आभास नहीं होता॥

मुखातिब मुस्कराकर जब कोई होता है महफिल में।
कसे हैं कितने ताने उसने हम पर भूल जाते हैं॥

आलम वही है एक जमाने के बावजूद।
आते हैं अब भी याद भुलाने के बावजूद॥

यकीनन बेमजा हो जायेगी फिर जिन्दगी उसकी।
अगर इंसान के पूरे सभी अरमान हो जायें॥

स्त्रोत : दीवाने-ए-मयंक, के. के. सिंह ‘मयंक’ अकबराबादी

Sunday 7 April 2013

प्रेसपालिका : 01अप्रेल, 2013 में प्रकाशित शायरी

उंगलियों पर हम गिना दें, हों अगर दो चार दस।
कामयाबी पर हमारी जलने वाले हैं बहुत॥

बदलने को तो हर लम्हा ही मैंने करवटें बदली।
करारे जिन्दगी पाया न इस करवट न उस करवट॥

फूल खिलाता था जो कल तक, आज वो कांटे बोता है।
फर्क आखिर यह कैसे आया, मैं भी सोचूँ तू भी सोच॥

उगते सूरज की इबादत की जिन्होंने उम्रभर।
जश्‍न वह कैसे मनायें शाम ढल जाने के बाद॥

पहले मेरी जिन्दगी पर छाये थे रस्मो रिवाज।
भूल बैठा हर रिवायत, आप से मिलने के बाद॥

आरजू जन्नत की लेकर दर-बदर भटका किये।
स्वर्ग लेकिन मिल सका बस अपने घर जाने के बाद॥

बन के तुम्हारी याद महकती रही सदा।
जूही, चमेली, रात की रानी तमाम उम्र॥

स्त्रोत : दीवाने-ए-मयंक, के. के. सिंह ‘मयंक’ अकबराबादी