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Wednesday 19 December 2012

प्रेसपालिका : 16 दिसम्बर, 2012 में प्रकाशित शायरी

गलत राहों पे कैसे साथ चलते सोचिये खुद ही|
न लीजे बेसबब हमसे खुदारा मेहरबां बदला॥

दो कदम तुम भी बढो और दो कदम हम भी बढें|
खुद-ब-खुद जो फासला है-दरमिया मिट जायेगा॥

कोई दुआ न हक में मेरे काम आ सकी|
बर्बाद मुझको होना था, बर्बाद हो गया॥

वक्त बदला तो सभी ने अपनी नजरें फेर ली|
तुम भी नजरें फेर लोगे, इसका अन्दाजा न था॥

उसके मरने पर किसी की आँख में आंसू न थे|
जिन्दगी का जिसने मिलजुल कर सफर काटा न था|

हर तरफ महफिल में उसकी कहकहों की गूंज थी|
मैं सुनाने उसको नाहक गम का अफसाना गया॥

जीना तो मुहब्बत में मुश्किल है बहुत मुश्किल|
मरना भी मुहब्बत में आसान नहीं होता॥

खुद जिसने मुझे डाला रस्ते पे गुनाहों के!
वह मेरे गुनाहों की क्या मुझको सजा देगा?

रोज खिलते हैं तेरे लब पर तबस्सुम के गुलाब|
और हमको मुस्कुराये इक जमाना हो गया॥

मैं न कहता था कि इक दिन वह बुलायेंगे जरूर|
वक्ते रुख्सत ही सही, उनका पयाम आ ही गया|

इसलिये करता नहीं हूँ पेश दिल का मुद्दआ|
मुझको यह मालूम है क्या मुझसे फरमायेंगे आप!

वह भी कांटे बो रहे हैं, अब हमारी राह में|
हमने जिनके पांव से कांटे निकाले हैं बहुत॥

स्त्रोत : के. के. सिंह ‘मयंक’ अकबराबादी, दीवाने-ए-मयंक

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